कथा विमर्श

हिन्दी साहित्य, स्त्री और आत्मकथा
    - डॉ शरद सिंह                    
     हिन्दी साहित्य में अनेक विधाएं प्रवाहमान हैं - कहानी, उपन्यास, नाटक, ललित निबन्ध, आलोचना, कविता, गीत आदि। चकित कर देने वाली बात यह है कि इनमें आत्मकथा का अस्तित्व सबसे नूतन विधा के रूप में दृष्टिगत होता है। एक बात सुनिश्चित  है कि हिन्दी में लेखिकाओं द्वारा आत्मकथा लिखने की परम्परा पुरानी नहीं है। यदि यह विधा लेखिकाओं की कलम से अधिकतर दूर रही तो इसका सबसे बड़ा कारण है सामाजिक दबाव। किसी भी स्त्री के लिए अपने जीवन का सच उजागर करना कोई आसान काम नहीं है। जब स्त्री आत्मकथा लिखती है तो उसे धमाके के रूप में देखा जाता है, विशेष रूप से लेखन के क्षेत्र से जुड़ी स्त्रियों की आत्मकथा। लेखिकाओं की आत्मकथा उंगलियों पर गिनी जा सकती है।
धीरे-धीरे यह तथ्य स्वीकार किया जाने लगा है कि लेखिका एक स्त्री होने के साथ-साथ पुरुषों की भांति एक मनुष्य भी है जिसका अपना एक जीवन है, अपने दुख-सुख हैं और जिन्हें गोपन रखने अथवा उजागर करने का उसे पूरा-पूरा अधिकार है। उसके भीतर वे सभी संवेग होते हैं जो एक आम स्त्री में होते हैं, अन्तर मात्र यही होता है कि आम स्त्री उन संवेगों को व्यक्त करने का साहस नहीं संजो पाती है जबकि आत्मकथा लिखने वाली स्त्री साहस के साथ सब कुछ सामने रख देती है-जो जैसा है, वैसा ही। 

स्त्री और उसकी आत्मकथा के अस्तित्व को एक साथ स्वीकार करने का वातावरण जन्म ले चुका है और उसमें हिन्दी की लेखिकाओं की आत्मकथाओं की कड़ियों का जुड़ते जाना स्त्री से उसके समूचे अस्तित्व के साथ स्वीकार किए जाने जैसा है। एक बौद्धिक सकारात्मक बोध की तरह।




‘पगलिया’ कहानी का शेष भाग.......
इसी स्टैण्ड पर पंचम अपना ठेला लगाता था। पूड़ी, कचौड़ी, पुलाव और मटर का छोला। मटर का छोला वह बहुत अच्छा बनाता था। उसे भी हर एक की पसंद-नापसंद पता थी। जब कभी मैं पूड़ी माँगता था, तो वह मुझे पूड़ी के साथ सिर्फ छोले देता था। क्योंकि आलू मुझे पसंद नहीं थे। यहीं एक औरत घूमती रहती थी, बल्कि यों कहें कि रहा करती थी। उसका कोई घर नहीं था, कोई अपना नहीं था, कोई ठिकाना नहीं था। उम्र होगी यही कोई तीस साल। रंग तो पता नहीं उसका कैसा होगा, शायद गोरा ही होगा। रंग का पता चले भी कैसे ? उसके पूरे शरीर पर मैल की एक मोटी परत जमी थी, काली चीकट। बाल तो जैसे गोंद से चिपकाए गये हों। कपड़ों के बारे में कुछ भी कह पाना मुश्किल था। कभी फटी साड़ी और ब्लाउज, कभी सिर्फ पेटीकोट और लम्बा कुर्ता। सबके सब फटे-चीकट। उसे कभी किसी ने मुँह धोते नहीं देखा, कभी नहाते नहीं देखा। वह नहाती थी तो सिर्फ बरसात के पानी में। देर तक भीगने से मैल फूल जाता था। तब उसे खुजली मच जाती थी। वह तिलमिला-तिलमिला कर अपना बदल खुजलाने लगती थी। लोग समझते थे वह नाच रही है। खूब हँसते थे सब- अरे देखो-देखो पगलिया नाच रही है।हाँ, उसे पगलिया ही कहते थे लोग।

    यह पगलिया न जाने कब से इस स्टैण्ड पर रह रही थी। लाली नाम था उसका। यही नाम गुदा हुआ था उसकी कलाई पर, जो जमें हुए मैल के साथ मिलकर उसी में गुम हो गया था। उसका कोई चूल्हा-चौका नहीं था, कोई बिस्तर नहीं था। कोई तथाकथित धर्म नहीं था, कोई जाति नहीं थी। कोई अपनी पसंद नहीं थी। कोई हमदर्द नहीं था। वह सबके लिए बस पगलिया थी, सिर्फ पगलिया। उसकी पूरी दुनिया उसके अंदर थी। वह कभी-कभी गुमसुम गुलमोहर के नीचे बैठकर रोती रहती। कभी खूब खिलखिला-खिलखिला कर हँसती रहती, और कभी घण्टों नाचती रहती। नाचते समय वह गाना भी गाती, जिसका मतलब सिर्फ वही समझती। नाचते समय बीघे भर में फैले स्टैण्ड की पूरी जगह भी उसके लिए कम पड़ती।

    वह हँसती थी, तो लोग हँसते थे। वह रोती थी, तो भी लोग हँसते थे। जब वह नाचती गाती थी, तो भी लोग हँसते थे। वह क्यों हँसती थी ? क्यों रोती थी ? क्यों नाचती-गाती थी ? इसके बारे में किसी ने कभी नहीं सोचा। सोचने की फुर्सत भी किसे थी।

    स्टैण्ड पर 15-20 टैम्पों लगभग हमेशा खड़े रहते थे। दो-दो, चार-चार के गुट में बैठे हुए ड्राइवर कभी ताश खेल रहे होते, कभी गप्पें लड़ा रहे होते और कभी अश्लील चुटकुले कह-सुन रहे होते। शायद ही कोई ड्राइवर ऐसा हो, जिसकी कोई बात बिना गाली के निकलती हो। ऐसी-ऐसी गालियाँ, जो उनके अलावा सिर्फ पुलिसवालों को पता हैं। आम लोगों के लिए ये गालियाँ उनकी हैसियत से बाहर हैं। गालियाँ तो पगलिया भी देती थी, लेकिन कभी-कभी। वह ड्राइवरों की तरह हर बात में गाली नहीं देती थी। जब कभी आक्रोश में होती या कभी किसी भले मानस की कोई चटपटी बात उसे अटपटी लग जाती अथवा कोई सामान्य सी हरकत उसे बेहूदी लग जाती, तभी वह गालियों का इस्तेमाल करती। उसकी गालियों का कोश भी बहुत छोटा था। आम लोगों से भी छोटा। वह जिस अंग से पैदा हुई थी, उसी के पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग गालियों में करती थी या फिर ड्राइवरों को गाली देते समय कुछ खास विशेषणों से उन्हें नवाजती जैसे- कमीना, हरामी, गांडू, हिजड़ा, सुअर, भडुहा, चोट्टा और लुच्चा आदि।

पगलिया आम लोगों और ड्राइवरों से कई मामलों में बिल्कुल अलग थी। मसलन वह कभी बेवजह किसी को परेशान नहीं करती, किसी की बुराई नहीं करती, अपने स्वार्थ के लिए किसी का नुकसान नहीं करती, किसी का मजाक नहीं उड़ाती, किसी से ईर्ष्या-द्वेष नहीं रखती, कभी झूठ नहीं बोलती, छल-कपट नहीं करती, किसी को दुःख नहीं पहुँचाती और न ही किसी को अपना दुखड़ा सुनाती। उसकी कोई माँग नहीं थी, किसी से कोई शिकायत नहीं थी, कोई हवस नहीं थी, मन में लालच नहीं था, भय नहीं था, भविष्य की चिन्ता नहीं थी, किसी से मोह नहीं था। शायद इसीलिए लोग उसे पागल कहते थे।
   
    ड्राइवरों की दुनिया भी बिल्कुल अलग थी। कुछ अलग तरह की बोली, भाषा, व्यवहार, सोच और शब्दावली उन्हें एक अलग पहचान देती थी। इसी दुनिया में एक ड्राइवर था- काने। उसकी एक आँख पत्थर की थी। शायद इसीलिए उसका नाम काने पड़ गया होगा। काने की ड्राइवर बिरादरी में एक खास हैसियत थी। पगलिया द्वारा दिए जाने वाले सारे विशेषण उसके लिए कम पड़ते थे। कोई ऐसा नशा नहीं था, जो उसकी पहुँच से बाहर हो। बीड़ी, सिगरेट, तम्बाकू, गाँजा, भाँग, अफीम और दारू सभी का इस्तेमाल करता था वह। झूठ, फरेब, छल-कपट और मक्कारी जैसे सारे गुण थे उसमें। बहुत ही निष्ठुर और झगड़ालू था वह। शायद ही कोई दिन ऐसा जाता, जब उससे किसी से झगड़ा या मारपीट न होती हो। उसकी हर बात गाली से शुरू होती और गाली से ही खतम होती। वह किसी की तारीफ भी करता तो गालियों के साथ। वह खुद को भी गालियाँ देता। कुछ ही ड्राइवर थे, जो उसके पास उठते-बैठते थे, उससे बातें करते थे। उसके साथ नशापत्ती करते थे।
   
    स्टैण्ड के एक कोने पर मँगतों के दो डेरे थे। वे जाने कब से वहीं बरसाती तानकर रह रहे थे। एक डेरे में चार परानी थे। एक आदमी, जिसका नाम था- लंगड़। उम्र होगी यही कोई 50 साल। वह कहीं से लँगड़ा नहीं था। लेकिन दिन के समय वह बैसाखी लेकर स्टेशन के सामने खड़ा होता था। आने-जाने वाले मुसाफिरों से पैसा माँगता था। पूरे दिन लँगड़ा रहने के बाद वह शाम को बिल्कुल चंगा हो जाता था। अपने डेरे पर दारू पीकर नाचता था, गालियाँ देता था और मुर्गा नोचता था।
   
    लंगड़ की एक औरत थी और दो बच्चे। बच्चे भी अलग-अलग जगहों पर भीख माँगते और शाम को लंगड़ के साथ दो-दो घूँट लगाते। लंगड़ की औरत को लोग नंगी कहा करते थे। पता नहीं उसका यह नाम कब और कैसे पड़ गया था। कुछ भी हो, नंगी के नैन-नक्श अच्छे थे। खूब बन-ठनकर रहा करती थी। देखने से तो वह बहुत भोली-भाली, सुसभ्य और लाजवंती थी, लेकिन वास्तव में ऐसी थी नहीं।
   
    दूसरे डेरे में गामा का परिवार रहता था। गामा बस नाम का गामा था। कद-काठी ऐसी कि फूँक मारो तो उड़ जाए। उसके साथ उसकी माँ भी थी। सत्तर बरस की बुढ़िया को लोग रंगीली कहकर बुलाते थे। गामा की जोरू भी थी। चमेली नाम था उसका। चमेली तो बस चमेली ही थी। गेहुँआ रंग, तीखे नैन-नक्श, गठीला बदन और बलखाती पतली कमर। बस जबान की जरा तीखी थी। छूटते ही गरियाने लगती। ताज्जुब की बात तो यह थी कि गालियाँ खाकर भी लोगों को गुस्सा नहीं आता था। गामा और रंगीली सुबह-सुबह भीख माँगने निकल जाते। चमेली अपने चेहरे पर क्रीम-पाउडर चुपड़ कर, बालों में सफेद फूलों का गजरा लगाकर ड्राइवरों के साथ बैठकर ताश खेलती, गप्पें लड़ाती, कभी इस टैम्पो पर, कभी उस टैम्पो पर।

    ये दोनों डेरे टैम्पो स्टैण्ड के लिए खास महत्त्व रखते थे। कुछ को छोड़कर बाकी ड्राइवर रात के समय और कभी-कभी दिन के समय भी इन डेरों पर चमेली या नंगी का सानिध्य प्राप्त करते। अपनी-अपनी सुविधा और पानी के अनुसार कुछ पुलिस वाले भी इन डेरों में नाइट-ड्यूटी बजाते। रात के लिए दिन में एडवांस बुकिंग हो जाया करती थी। दिन के लिए एडवांस बुकिंग की जरूरत नहीं थी। वैसे भी शरीफ लोग दिन के समय परहेज करते हैं। आखिर मर्यादा भी कोई चीज है। मँगतों के डेरे में कोई घुसते हुए देख लेगा तो क्या कहेगा। हाँ, काने की बात और थी। उस पर किसी मर्यादा का पहरा नहीं था। गामा, लंगड़, चमेली, रंगीली और नंगी सबसे पटती थी उसकी। पुलिस वालों से भी खासा मेल-जोल था। सब पैसे का खेल था। जैसी फीस, वैसी सुविधा। देशी-विलायती शराब, मुर्गा, बिरयानी, शिक्षाप्रद उत्प्रेरक रंगीन एलबम आदि सब कुछ। कुछ ज्यादा फीस देकर पूरे शरीर की तेल-मालिश की भी सुविधा थी। बाहर लंगड़ और गामा या रंगीली का पहरा रहता था। कोई बिना इजाजत अंदर नहीं जा सकता था। जबरदस्ती करने पर पुलिस आ धमकती थी। कानून व्यवस्था बिल्कुल चुस्त-दुरुस्त थी।
   
    पगलिया के नजदीक सिर्फ दो ही लोग ज्यादा थे। एक रंगीली, दूसरा काने। रंगीली उसकी हमदर्द थी। फटे-पुराने कपड़े वही जुटाती थी उसके लिए। अपने डेरे के पास ही बोरियाँ बिछा रखी थीं, जिन पर पगलिया अक्सर सोया करती थी। जाड़े के दिनों में ऊपर से दो बोरियाँ और डाल देती थी। जब लोग उसे तंग करते तो रंगीली उन पर नाराज होती। पगलिया जाकर उन्हीं बोरियों में दुबक जाती।
   
    पगलिया को तंग करने वालों में काने सबसे आगे था। कभी-कभी तो वह उसे इतना तंग करता कि वह चीख-चीखकर गालियाँ बकने लगती या फिर अपनी छाती पीट-पीटकर रोने लगती।  इसी में काने को मजा आता। दूसरे ड्राइवर उसे रोकना चाहते तो वह उनसे लड़ बैठता। चीख-चीखकर वह भी गालियाँ बकने लगता। इसीलिए उससे कोई उलझना नहीं चाहता। काने सिर्फ उसे तंग ही नहीं करता, बल्कि कभी-कभी उसके साथ बैठकर बातें भी करता। उसकी बातें तो वही जाने। दूसरा कोई न उसके पास जाता, न उसकी बातें सुनने की कोशिश ही करता।

    पगलिया थी तो बहुत गंदी। उसके बदन से तीखी दुर्गन्ध भी आती। लेकिन मरियल और बीमार नहीं थी। उसे कभी किसी नेे भूख-प्यास और बीमारी से घिसटते हुए नहीं देखा। पंचम का ठेला उसकी सबसे बड़ी रसोई थी। लोग पूड़ी-सब्जी खाकर दोने एक ड्रम में डालते थे। पगलिया उसी ड्रम से दोने निकालती। उनमें बची हुई सब्जी और पूड़ियों के टुकड़ों के चटखारे लेती। वहाँ दो-तीन कुत्ते भी थे, जो उसके चटखारों में खलल डालते। अक्सर पगलिया और उन कुत्तों के बीच झगड़ा हो जाया करता। आखिर में जीत पगलिया की होती। वह उन्हें गुम्में मार-मारकर खदेड़ देती। कभी-कभी जब उसका पेट नहीं भरता तो वह जूठा दोना लेकर पंचम के सामने खड़ी हो जाती। पंचम भी कभी इंकार नहीं करता। सब्जी और पुलाव से उसका दोना भर देता। ऊपर से दो पूड़ी भी डाल देता।

    वहाँ कई फलों के ठेले भी लगते थे। ठेले वाले दुकानदार सड़े-गले केले, संतरे, सेब आदि फेंक दिया करते थे। पगलिया उनका भी स्वाद लेती। उसकी रोग प्रतिरोधक क्षमता बहुत अच्छी रही होगी। कद काठी भी मजबूत थी। पूरी बरसात वह भीगती, पूरे जाड़े भर ठंड से ठिठुरती, गर्मियों में लू के थपेड़े सहती, फिर भी शरीर से कभी शिथिल नहीं हुई। तभी तो उस दिन सभी लोग चौंक पड़े, जब वह एकाएक बीमार पड़ गई।

    उस दिन वह नाच रही थी। नाचना-गाना उसके लिए कोई नई बात नहीं थी। घण्टों बिना थके नाचती रहती। लेकिन उस दिन तो 10 मिनट भी नहीं नाच पाई थी कि कटे रूख सी गिर पड़ी। सभी ड्राइवर दौड़ पड़े। उनमें मैं भी था। वह बिल्कुल निश्चेष्ट पड़ी थी, जैसे सो रही हो। लोग अपना-अपना अनुमान लगा रहे थे- अरे ! ये तो चली गई।नहीं-नहीं, ये बेहोश हो गई है। अरे मुझे तो लगता है अब इसका आखिरी समय आ गया है।नहीं बे, नया है क्या ? ये तो मर चुकी है।

    तभी जैसे बिस्फोट हो गया। अब तक चुपचाप खड़ा हुआ काने एकाएक चीख पड़ा- अबे चुप मादर ........। अंधा है क्या ? देखता नहीं, दोनों छातियाँ उठ-बैठ रही हैं। यह जिंदा है।उसके बाद वह बैठ गया और उसकी दोनों छातियों पर हाथ रखकर जैसे उसके जिंदा होने के सबूत ढूँढने लगा। तभी भीड़ को चीरते हुए रंगीली आ पहुँची। देखते ही फूट पड़ी - अरे ई का कर रहा है हरमिया। हट बेशरम ! का हुआ पगलिया के। कउन सुअर ने मारा है। काने तू......।

    काने उठकर खड़ा हो गया- अरे चुप ससुरी ! बंदकर अपनी चाँय-चाँय। इसे किसी ने नहीं मारा। ई ससुरी नाचत-नाचत खुदै गिर परी। बिना जाने-समझे गदहिया की तरह गला फाड़े जा रही है।

    रंगीली नीचे बैठ गई। पगलिया का सिर हिला-डुलाकर देखा। वह सचमुच बेहोश पड़ी थी। एक पल को वह सोचती रही, क्या करे, क्या न करे। फिर काने से बोली- अब चल, उठा। हाथ लगा जरा।काने ने उसे एक तरफ से उठा लिया। दूसरी तरफ से रंगीली ने टाँग लिया। उसे ले जाकर बोरियों पर लिटा दिया। भीड़ वहाँ भी पहुँच गई। लेकिन रंगीली ने किसी को फटकने नहीं दिया। सबकी माँ-बहिन का गुणगान करते हुए भगा दिया। वहाँ सिर्फ काने बचा और रंगीली। उसके बाद पता नहीं क्या हुआ। शाम हो गई थी। मेरा नम्बर भी आ गया था। टैम्पो में सवारियाँ भरकर मैं चला गया। दूसरे दिन मुझे गाँव जाना था। परिवार में ही एक शादी थी। उसमें कई दिन लग गए।

    मैं एक हफ्ते बाद लौटकर आया। गाड़ी नम्बर पर लगाने के बाद तुरन्त दिमाग में सवाल उठा- क्या हुआ होगा पगलिया का ? गुलमोहर के नीचे नजर दौड़ाई। वह वहाँ नहीं थी। पंचम के ठेले के आस-पास भी नहीं थी। रंगीली के डेरे की तरफ देखा। वह वहीं बोरियों पर चुपचाप बैठी आसमान को घूर रही थी। चलो जिंदा तो है, लेकिन अचानक उसे कौन सी बीमारी हो गई ? किससे पूछूँ !

    तभी पीछे से किसी ने एक धौल जमा दी। घूमकर देखा, विनोद था। खड़ा मुस्कुरा रहा था। अरे यार, बहुत दिन लगा दिए गाँव में। क्या बात   है ? तुम खड़े-खड़े कुछ सोच रहे थे ?“

    ”हाँ यार !

    ”क्या ?“

    ”पगलिया की बीमारी का कुछ पता चला ?“

    ”हाँ, बहुत गम्भीर बीमारी है। साला हरामी, उल्लू का पट्ठा, सुअर....।

    ”अरे यार, ये किसे गालियाँ दे रहे हो ?“ मैंने उसे टोंकते हुए पूछा- क्या हो गया ? मैंने तो बीमारी के बारे में पूछा था। तुम गालियाँ देने लगे।

    वह शांत और गम्भीर हो गया था- माफ करना यार, ये गालियाँ तुम्हें नहीं दे रहा था। वह पगलिया के बारे में तुम पूछ रहे थे न। उसे किसी सुअर ने गाभिन कर दिया।

    ”क्या !मैं एकदम अवाक् रह गया। बस विनोद को घूरे जा रहा था। वह फिर बोला- तुम्हें विश्वास नहीं होगा। जाकर रंगीली से पूछ लो। उसी ने दूसरे दिन इस बात का खुलासा किया था।

    विनोद की बात सच्ची थी। पगलिया पेट से थी। पगलिया जैसी औरत, जिसे कोई छूना तक पसंद नहीं करता था, जिसकी दुर्गन्ध नाक में घुसकर घिन पैदा करती थी, उसके साथ.... छि-छि। जाने वह कौन रहा होगा, जिसने ऐसा घिनौना कुकृत्य किया। कोई यह अपराध स्वीकार करने को तैयार नहीं था।

    धीरे-धीरे समय बीतने लगा। पगलिया अब पहले की तरह हँसती नहीं थी, रोती नहीं थी, नाचती-गाती नहीं थी। बस गुमसुम बैठी रहती थी। अब वह गालियाँ भी नहीं देेती थी। उसके अंदर आये ये परिवर्तन आश्चर्यजनक थे। रंगीली अब उसका ज्यादा ध्यान रखने लगी थी। जब तक वह डेरे पर रहती, पगलिया के पास किसी को आने नहीं देती। इस बात को लेकर कई बार काने और रंगीली में गाली-गलौज हो जाती। काने ने पगलिया को परेशान करना अभी बंद नहीं किया था। जब भी मौका मिलता, वह उसे परेशान करता, उसे नाचने-गाने के लिए कहता, लेकिन वह तो नाचना-गाना जैसे भूल ही गई थी। हाँ, ज्यादा परेशान करने पर काने को दो-चार गालियाँ जरूर देती। उसके बाद बैठकर चुपचाप सिसकियाँ लेती रहती। अब वह पहले की तरह चिल्लाकर छाती पीट-पीटकर नहीं रोती।

    पगलिया के बारे में चिन्ता सभी को होने लगी थी। जिसे अपने तन, मन, कपड़े-लत्ते और भूख-प्यास का होश नहीं है, वह बच्चे को कैसे संभालेगी ? कैसे कर पायेगी उसकी परवरिश ? थोड़ी बहुत उम्मीद थी तो रंगीली से। वह बच्चे के पालन-पोषण में मदद कर सकती है, लेकिन   कितनी ! जिसने पगलिया को इस हालत में पहुँचाया, क्या वह भी कुछ मदद करेगा ! शायद नहीं। जो यह कुकृत्य स्वीकार करने को तैयार नहीं, वह भला क्या मदद करेगा। ऐसा करने से उसकी शराफत पर उँगलियाँ उठाये जाने का भय था। घूम-फिरकर सभी का शक काने पर जाता था। कुछ को तो पूरा विश्वास भी था। एक वही था, जो पगलिया के पास उठता-बैठता था। कभी वह उसके साथ ठुमके भी लगा लेता था। उससे बातें करता था। उसे छूने में भी परहेज नहीं था। यह जरूर उसी की हरकत होगी, लेकिन कहे कौन ? उससे झगड़ा कौन मोल ले ? पुलिस भी तो कुछ नहीं करेगी। ये सब बातें थीं, जो अक्सर ड्राइवरों के बीच होती रहतीं।

    समय तो अपनी गति से चलता रहता है। धीरे-धीरे पगलिया का पेट भी पूरा हो गया और एक दिन सुबह सूरज की पहली किरन के साथ बच्चे की किलकारी फूट पड़ी। पूरे स्टैण्ड पर खबर फैल गई। पगलिया ने एक बच्चे को जन्म दिया था। उसकी छातियों में दूध भी उतर आया था। सिर्फ दूध ही नहीं, उसके साथ दिल में ममता का सागर भी उमड़ पड़ा था। उसके होठों पर मुस्कान खिल उठी थी। सब कुछ आशा के विपरीत था। अपने तन-मन का होश न रख पाने वाली पगलिया अपने बच्चे से इतना मोह करेगी, इसकी किसी को उम्मीद नहीं थी। वह हर समय बच्चे को गोद में रखती। किसी को अपने पास फटकने तक न देती। कोई बच्चे को देखने की कोशिश करता, तो वह बच्चे को और ज्यादा सीने से चिपका लेती। कोई बच्चे की तरफ हाथ बढ़ाता, तो वह चीखती-चिल्लाती।

    केवल एक रंगीली ही थी। जो बच्चे को अपनी गोद में ले सकती थी। काने भी कई बार बच्चे को लेने की कोशिश करता। लेकिन रंगीली उसे डंडा लेकर दौड़ा लेती। गालियों की बौछार कर देती। फिर भी काने को मौका मिल ही जाता। रंगीली हर समय तो डेरे पर रहती नहीं थी। मौका मिलते ही वह बच्चे को छीन कर भाग जाता। पगलिया उसे दौड़ाती, चीखती-चिल्लाती, गालियाँ देती। जब नहीं पाती तो वहीं बैठ जाती और छाती पीट-पीटकर रोने लगती। उस समय उस पर सभी को तरस आता। काफी देर बाद काने बच्चे को लेकर लौटता। पगलिया बच्चा पाते ही उसे बेतहाशा चूमने लगती। साथ-साथ रोती भी जाती। फिर उसे सीने से चिपकाकर भाग जाती।

    सभी को आश्चर्य था पगलिया की ममता पर, कुदरत के करिश्मे पर। अक्सर यह सोचना पड़ जाता, यह औरत क्या सचमुच पागल है ? क्या इसे माँ बनाने वाला व्यक्ति दिमागी रूप से स्वस्थ था ? पता नहीं, जो भी हो, लेकिन इस तरह के सवाल रोज उठते, जिनका कोई जवाब नहीं मिल पाता। इसी तरह पगलिया की चीख पुकार, रोने-चिल्लाने और गालियों के साथ बेपनाह ममता के बीच बच्चा पल रहा था। समय अपनी गति से भाग रहा था।

    इतवार के दिन स्टैण्ड पर ज्यादातर सन्नाटा ही रहता। एक-एक गाड़ी का नम्बर कई-कई घंटों में आता। उस दिन भी इतवार ही था। रंगीली बैठी डेरे के बाहर खाना खा रही थी। पगलिया बच्चे को दूध पिला रही थी। तभी काने आ पहुँचा। पगलिया बच्चे को लेकर दूसरी ओर घूम गयी। रंगीली ने काने को रोकने की कोशिश की। लेकिन काने नहीं माना। उसने पगलिया की गोद से बच्चे को छीन लिया। पगलिया चिल्लाने लगी। रंगीली मुँह का कौर छोड़ती हुई बोली- अरे हरमिया काहे परेशान करता है पागल औरत को ? दे-दे बच्चा।

    काने हँस पड़ा- अरे चुपचाप खाना खा बुढ़िया। बिना मतलब टांग मत अड़ाया कर। मैं बच्चे को कोई विदेश नहीं ले जा रहा हूँ। इसे गाड़ी चलाना सिखाऊँगा। लल्लनटाप ड्राइवर बनाऊँगा। अभी इसे घुमाकर लाता हूँ।

    काने बच्चे को लेकर चल पड़ा। पीछे से पगलिया भी चीखते-चिल्लाते, गालियाँ देते हुए दौड़ पड़ी। काने भागकर गुलमोहर के नीचे आ गया। पगलिया भी आ पहुँची। लेकिन वह बच्चे तक पहुँच पाती, इसके पहले ही काने फिर भाग पड़ा। वह बच्चे को लेकर सड़क के उस पार निकल गया। पगलिया एक पल अवाक् रह गई। वह सिसक पड़ी। ऐसा पहली बार हुआ था, जब काने बच्चे को लेकर सड़क के उस पार भागा था। पगलिया को लगा कि उसका बच्चा अब नहीं मिलेगा। उसकी ममता भड़क उठी। वह आँखें फाड़कर चिल्लाते हुए बेतहाशा काने की तरफ दौड़ी। तभी तेजी से आती हुई एक सिटी बस के ब्रेक चीख पड़े- चेंए...ए...ए...ए ! सब कुछ पलक झपकते हो गया। पगलिया बस के नीचे आ गयी और उसकी चीख-पुकार हमेशा के लिए बंद हो गयी।

    सभी ड्राइवर दौड़ पड़े। रंगीली भी थाली छोड़कर दौड़ी। काने सड़क के उस पार था। बिलकुल अवाक्, निस्तब्ध, किंकर्तव्यूविमूढ़। उसकी आँखें फैल गई थीं। वह धीरे-धीरे भारी कदमों से इस पार आया। एकटक पगलिया की छत-विछत लाश को देखने लगा, जिसकी आँखें अभी तक खुली हुई थीं। वैसे ही, जैसे वह आँखें फाड़कर दौड़ी थी। बच्चा गला फाड़कर चिल्ला पड़ा। वहाँ खड़े हर ड्राइवर की आँखें गीली थीं। कोई क्या करे, क्या कहे, कुछ समझ में नहीं आ रहा था। रंगीली की आँखें सूखी थी। उनमें गुस्सा था, नफरत थी, शायद वहाँ खड़े हर शख्स के प्रति, काने के प्रति, या फिर बस ड्राइवर के प्रति। कुछ पल बाद उसकी भी आँखें बरस पड़ीं। उसने लपककर काने की गोद से बच्चे को छीन लिया और अपने सीने से चिपका कर फूट-फूटकर रो पड़ी। उस समय काने के अंदर बैठा जानवर भी सिसक पड़ा। उसकी आँख में लगा पत्थर भी पिघल कर बहने लगा।

                                                                लायक राम मानव
                                                               प्रधान सम्पादक, पैदावार
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