बुधवार, नवंबर 15, 2017

रंग जाएगा हर लम्हा अपने आप - संपादकीय - शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
‘‘सामयिक सरस्वती’’ पत्रिका के जनवरी-मार्च 2017 अंक में मेरा संपादकीय ...

("सामयिक सरस्‍वती", कार्यकारी संपादक Sharad Singh, संपादक Mahesh Bhardwaj) जनवरी-मार्च 2017 अंक )
रंग जाएगा हर लम्हा अपने आप
- शरद सिंह
‘बी बोल्ड फॉर चेंज’ यही है वर्ष 2017 का अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस अभियान। ‘स्त्री’ के परिप्रेक्ष्य में जब ‘बोल्ड’ शब्द आए तो पुरुष प्रधान समाज चौंकता है। ऐसे समाज का पूर्वाग्रह स्त्री की वैचारिक बोल्डनेस को भी देह के सांचे में ढाल कर देखने लगता है और उसके मानस में कौंधती रहती है ‘सेक्सुअल बोल्ड वूमेन’। इसी बीमारू विचार के विरुद्ध है यह नारा ‘बी बोल्ड फॉर चेंज’ अर्थात् दुनिया की सारी औरतें सकारात्मक परिवर्तन के लिए साहसी बनें। यूनाइटेड नेशन्स वूमेन की कार्यकारी निदेशक फुमज़िले मलाम्बो-नकूका ने अपने संदेश में कहा है कि ‘‘समूची दुनिया में अनेक स्त्रियां हैं जो अपने जीवन का अधिकांश समय घरेलू जिम्मेदारियों को निभाते हुए काट देती हैं। जो घर के बाहर काम करती हैं यानी कामकाजी हैं वे घोर असुरक्षा में जीने को विवश हैं, कभी घर में, तो कभी सड़क पर तो कभी कार्यस्थल पर। .... हमें स्त्रियों के लिए कामकाजी क्षेत्र की एक अलग दुनिया बनानी है जिसमें घरेलू और घर के बाहर किए जाने वाले कामों को शामिल रखा जाए जिससे एक स्वस्थ, सुरक्षित वातावरण सभी महिलाओं को मिल सके।’’
‘बी बोल्ड फॉर चेंज’ के तहत् जिन परिवर्तनों का आह्वान किया गया है उनमें हैं- पूर्वाग्रह और असमानता के माहौल को बदलना, स्त्रियों पर हिंसा का डट कर विरोध करना, अशिक्षा को दूर करना, स्वास्थ्य और कुपोषण के प्रति जागरूक होना, स्त्रियों की चहुंमुखी उन्नति के हरसंभव प्रयास करना तथा स्त्रियों की उपलब्धि पर उत्सव मना कर प्रोत्साहित करना।
उत्सव...हां, यदि सबकुछ सुखद हो तो उत्सवी लगता है वसंत...ऋतुओं में ऋतुराज...हृदय के आह्लाद की ऋतु। कवि त्रिलोचन ने वसंत पर एक छोटी, कोमल-सी कविता लिखी थी जो सन् 1980 में प्रकाशित ‘ताप के ताए हुए दिन’ में संग्रहीत हैः- ‘सीधी है भाषा बसन्त की/कभी आंख ने समझी/कभी कान ने पाई/कभी रोम-रोम से/प्राणों में भर आई/और है कहानी दिगन्त की।’।
वसंत अपने आप में जादुई और करिश्माई होता है। मौसम शीतकाल में जितना ठिठुरा हुआ, ठंडा और अवसादी लगता है, वसंत उसे अपनी गरमाहट से दुलार कर उतने ही ताप से भर देता है। जीवन का आरम्भ और समापन एक धुरी से दूसरी धुरी की यात्रा ही तो है। ‘श्रीमद्भागवत गीता’ की यह बात मन को ढाढस बंधाती है कि मृत्यु है ही नहीं। मृत्यु एक मिथ्या है, निरा मिथ्या। जो न कभी हुआ, न कभी हो सकता है। जो है, वह सदा है। रूप बदलते हैं। रूप परिवर्तन को मृत्यु समझ लिया जाता है। दिन और रात समय के ही रूपांतरण हैं। जैसे बीज में वृक्ष छिपा है। जमीन में डाल दो, वृक्ष पैदा हो जाएगा। जीवन जब तक बीज में छिपा रहता है, दिखाई नहीं देता। अंकुरित होते और पौधे के रूप में विकसित होते ही जीवन दिखाई देने लगता है। मृत्यु में मनुष्य छिप जाता है, गोया बीज में समा जाता है। पुनर्जन्म के सिद्धांत के अनुसार फिर किसी गर्भ में पहुंच कर, फिर प्रकट होता है। मरता कभी कुछ भी नहीं, जीवन सतत् प्रवाहमान रहता है। यह बात उस समय भी मन को उद्विग्नता से बचाती है जब हम अपने पितृपुरुष को याद करते हैं। जगदीश भारद्वाज (14.03.1935 - 18.03.2010) सामयिक प्रकाशन परिवार के पितृपुरुष जिनका स्मरण आज भी वटवृक्ष की शीतल छांह-सा अनुभव देता है। सीमित साधन और असीमित उत्साह का सुंदर मेल उस समय फलीभूत हुआ जब जगदीश भारद्वाज जी द्वारा सन् 1967-68 में सामयिक प्रकाशन की आधारशिला रखी गई। ‘सामयिक प्रकाशन’ का नामकरण किया था तत्कालीन प्रकाशन जगत् के आधार-स्तम्भ ओमप्रकाश जी ने। आज यही सामयिक प्रकाशन साहित्य के सागर तट पर लाईट हाऊस की तरह खड़ा है क्यों कि इसमें संस्कार हैं जगदीश भारद्वाज जी की जीवटता के, दृढ़ निश्चय के और संघर्षों से जूझने के। हम नमन करते हैं अपने पितृपुरुष को उनकी सातवीं पुण्यतिथि पर।
स्मरण ! हां, स्मरण ही तो है जो हमें अतीत से जोड़े रखता है। अतीत में मिलन के साथ-साथ विछोह के भी पन्ने होते हैं। इन पन्नों पर लिखी इबारत हमें भाव-विह्वल कर देती है। बेंजामिन फ्रैंकलिन ने कहा था कि ‘‘यदि चाहते हो कि तुम्हारे मरते ही लोग तुम्हें भूल न जाय, तो पठनीय लिखो या कुछ ऐसा करो जो लिखने योग्य हो।’’ विगत वर्ष जाते -जाते हिन्दी साहित्य जगत् को ऐसे महत्वपूर्ण दो साथियों का विछोह दे गया जिनका लिखा हुआ उनके स्मरण को सदा रेखांकित करता रहेगा। वीरेन्द्र सक्सेना और देवेन्द्र उपाध्याय। वीरेन्द्र सक्सेना साहित्यकार थे, पत्राकार थे। उन्होंने कई समालोचनात्मक शोधग्रंथ लिखे, जैसे- ‘काम-संबंधों का यथार्थ और समकालीन हिंदी कहानी’, ‘आवारा मानुष : विष्णु प्रभाकर’, ‘थोथा देय उड़ाय’, ‘सर्जन के साथ-साथ’ तथा ‘सर्जन के आप-पास’। जहां तक समकालीन हिंदी कहानी का प्रश्न है तो काम-संबंधों के यथार्थ चित्राण को ले कर सदैव विवाद रहा है। इस प्रकार का यथार्थ साहित्य में आना चाहिए या नहीं आना चाहिए? यदि आना चाहिए तो किस सीमा तक? आदि-आदि। वीरेन्द्र सक्सेना ने एक सुलझे हुए साहित्य मनीषी की भांति इस विषय पर गंभीर लेखन किया। ‘सामयिक सरस्वती’ के इस अंक में वरिष्ठ लेखिका मृदुला गर्ग ने वीरेन्द्र सक्सेना के साहित्य एवं व्यक्तिव का जिस शैली में स्मरण किया है वह उन्हें एकबार फिर मानो सामने ला खड़ा करती है...उनके उसी बेलौसपन के साथ जो ठेठ मौलिक थी। मृदुला गर्ग ने वीरेन्द्र सक्सेना को याद करते हुए लिख है-‘‘सत्य से उन्हें काफी या काफी से ज्यादा लगाव था। एक उपन्यास लिखा, ‘सर्वोत्तम सच’ के नाम से तो फिर हाल में लिखा, ‘अद्यतन सच’ उनके लिए इस ‘सच’ में तथ्यों का मिश्रण लाजिमी था। अपनी-अपनी शैली है सच को देखने की।’’
देवेन्द्र उपाध्याय की दो पीढ़ियां आजादी के आंदोलन में शामिल रहीं। पहले उनके दादा पुरुषोत्तम उपाध्याय महात्मा गांधी के सविनय अवज्ञा आंदोलन में जेल में रहे। फिर उनके पिता रघुवर दत्त उपाध्याय भी स्वतंत्राता आंदोलन से जुड़ गए। अपने दादा और पिता के उसूलों पर चलते हुए देवेन्द्र उपाध्याय ने एक पत्राकार और लेखक के रूप में जीवन जिया। वे ‘जनयुग’, ‘देशबंधु’ और ‘पंजाब केसरी’ जैसे समाचारपत्रों से लंबे समय तक जुड़े रहे। उनकी पत्राकारिता बहुआयामी थी। आकाशवाणी के लिए संसदीय रिपोर्टिंग भी करते थे। अपनी जन्मभूमि से अटूट लगाव होने के नाते पहाड़ से निकलने वाले सभी पत्रा-पत्रिकाओं में वे नियमित लिखते थे। उन्होंने उत्तराखंड की राजस्व व्यवस्था पर महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी। प्रदीप पंत का लेख देवेन्द्र उपाध्याय के समग्र पहलू से परिचित कराता है।
प्रेमचंद की ‘कफन’ कहानी मानवीय चरित्रा के समुच्चय को प्रस्तुत करती है। घीसू, माधव और बुधिया... मात्रा ये तीन पात्रा मानवीय दुर्बलता से दृढ़ता तक की बेजोड़ कहानी कह जाते हैं। जहां घीसू और माधव परिस्थितियों से हार कर जीने वाले पुरुषों के प्रतीक हैं वहीं बुधिया भारतीय स्त्री की पारम्परिक छवि की द्योतक है। सहते हुए प्राण दे देना पर ‘उफ़!’ न करना। समाज के गाल पर करारे तमाचे की तरह हैं ये तीनों पात्रा। किन्तु ‘कफन’ का कथानक मात्रा इतना ही नहीं है। कमल किशोर गोयनका इस कथानक में जीवन की विसंगतियों, विडम्बनाओं, निरर्थकताओं और अन्तर्विरोधों की एक विभिन्न परिपक्व व्याख्या करते हैं। इसीलिए तो अशोक मिश्र कमल किशोर गोयनका को प्रेमचंद विशेषज्ञ मानते हैं। इस अंक में कमल किशोर गोयनका से सुधा ओम ढींगरा का दिलचस्प साक्षात्कार है जिसमें गोयनका जी ने माना है कि साहित्य में वर्जनाओं की जंजीरें टूट चुकी हैं। साहित्य हो या समाज, वर्जनाओं का प्रश्न हमेशा ज्वलंत रहा है। बड़ा ही विवादास्पद मसला है कि जो एक की दृष्टि में अच्छा हो वह दूसरे की दृष्टि में बुरा हो सकता है या फिर जो एक की दृष्टि में बुरा हो वह दूसरे की दृष्टि में अच्छा हो सकता है। अच्छे या बुरे को परिभाषित करना आसान नहीं है।
किसी भी लोकभाषा अर्थात् बोली की अपनी एक जातीय पहचान होती है। यह जातीय पहचान ही उस बोली को अन्य बोलियों से अलग कर उसे स्वतंत्रा अस्तित्व का स्वामी बनाती है।  प्रत्येक बोली की अपनी एक भूमि होती है जिसमें वह पलती, बढ़ती और विकसित होती है। लेकिन क्या हर बोली को भाषा का दर्ज़ा दिया जा सकता है? भाषा और बोली की अपनी-अपनी स्वायत्तता कैसे बनी रह सकती है? इन दोनों प्रश्नों को खंगालते रहते हैं विख्यात भाषाविज्ञ प्रो. अमरनाथ। इस समय वे ‘हिन्दी बचाओ मंच’ के माध्यम से हिन्दी क्षेत्र के सांस्कृतिक पतन के खिलाफ संघर्षरत हैं। बोली और भाषा के अस्तित्व पर उनसे सार्थक चर्चा की है डॉ. जितेन्द्र गुप्ता ने।
चर्चा विमर्श को जन्म देती है और विमर्श विषय को विस्तार देता है। इन सबके बीच छोटा सा ही सही लेकिन वसंत जैसा महकता, चहकता जीवन नए अर्थ गढ़ता है, ठीक वैसे ही जैसे वसंत के बाद फागुन का आना और होलिकाना रंग-अबीर का छा जाना। इसी तारतम्य में मेरी ये क्षणिका -
आसमान गुलाल हो जाए
और ज़मीन फागुन
रंग जाएगा हर लम्हा
अपने आप
गोपी और हुरियारे की तरह !
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https://www.slideshare.net/samyiksamiksha/samayik-saraswati-january-march-2017
https://issuu.com/samyiksamiksha/docs/samayik_saraswati_january-march._20 
Editorial of Dr Sharad Singh in Samayik Saraswati January-March 2017

Editorial of Dr Sharad Singh in Samayik Saraswati January-March 2017

Samayik Saraswati January-March 2017 Cover

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