मंगलवार, जनवरी 12, 2016

पुस्तक समीक्षा ..... समाज के यथार्थ का कोलाज़ - डॉ. शरद सिंह



Dr (Ms) Sharad Singh

पुस्तक समीक्षा


          - डॉ. शरद सिंह

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पुस्तक   - कुर्की और अन्य कहानियां 
लेखिका  - उर्मिला शिरीष   

प्रकाशक- सामयिक प्रकाशन, 3320-21, जटवाड़ा, दरियागंज, नई दिल्ली-2

मूल्य- रुपए 250 मात्र                                          
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Kurki aur anya kahaniyan
समाज में दुख-सुख, राग-द्वेष, जीतने और हारने के अनेक रंग दिखाई देते हैं। इन्हीं रंगों के बीच अनेक ऐसी घटनाएं छिपी होती हैं जो कहानी बन कर उभरने पर मन को गहरे तक छीलती चली जाती हैं। एक स्त्री जो अपने ढंग से जीना चाहती हो, एक किसान जो अपनी ज़मीन के लिए मर-मिटना चाहता हो और एक एक आम आदमी जो परिस्थितियों के द्वारा हर क़दम पर छला जा रहा हो यदि कहानियों में इस तरह उतर आएं कि मानो आंखों के आगे  चलचित्र चल रहा हो तो ऐसी कहानियां किसी सिद्धहस्त कथाकार की कलम से ही बाहर आ सकती हैं। हिन्दी कथाजगत में उर्मिला शिरीष निर्विवाद रूप से एक ऐसी सिद्धहस्त कथाकार हैं जिनकी कहानियों के कथानक ही नहीं वरन् कथापात्रा भी बहुत जाने-पहचाने और बहुत समीप के लगते हैं क्यों कि वे आम जि़न्दगी ये कथावस्तु चुनती हैं और आमजि़न्दगी के चरित्रों को अपनी कहानियों में पात्र के रूप में पिरोती चली जाती हैं। कुर्की और अन्य कहानियांउर्मिला शिरीष का नया कहानी संग्रह है। संग्रह में छोटी-बड़ी ग्यारह कहानियां हैं। ये सभी कहानियां जीवन के ग्यारह रंगों का बयान करती हैं।

संग्रह की पहली कहानी एम. एल. सी.है जो निम्नवर्ग के तबके की एक ऐसी स्त्री की कथा है जो पारिवारिक दुर्भावना की शिकार है। वह स्त्री है खेरुनबाई जिसे उसके ही परिवारवालों द्वारा विवश किया जाता है कि वह परिवार का पेट पालने के लिए देह व्यापार करे। उसके लिए ग्राहकों का जुगाड़ किया जाता है चाहे उसे उन ग्राहाकोंसे देह संबंध स्थापित करना पसंद हो या न हो। सच तो यह है कि उन स्त्रिायों का प्रतीक है जिनकी देह पर उनका स्वयं का अधिकार नहीं होता वरन् पुरुष ही उनके जीवन के साथ-साथ उनकी देह का भी मनचाहा उपयोग करते हैं। खेरुनबाई को यह भी अधिकार नहीं है कि वह किसी से प्रेम कर सके अथवा जिसे प्रेम करती है उसे अपनी इच्छा से अपनी देह सौंप सके। वह विरोध करती है तो बदचलन कहलाती है। खेरुनबाई में स्वयं के शोषण के विरुद्ध चेतना है और वह थाने पहुंच कर बेझिझक बयान देती है कि ‘‘मेरे देवर ने मारा है और उस हरामी, कमीने ने मेरे साथ ग़लत काम भी किया है।’’ वह आगे कहती है कि  ‘‘उसने मेरे साथ बलात्कार किया है। देखो मेरे कपड़े फाड़ डाले। मेरी छातियों को पांवों से कुचला। आप जांच करवा लो! मैं झूठ नहीं बोल रही। उस हरामी को गि़रफ़्तार करो , साब! वो मुझे मार डालेगा।’’ (पृ.11)

पर थानेदार प्रतिप्रश्न करता है,‘‘क्यों मारा? कोई तो बात रही होगी और तूने ग़लत काम होने दिया?’’ (पृष्ठ.11) गोया ग़लत कामस्त्री की सहमति से किया जाता हो। उर्मिला शिरीष ने खेरुन और थानेदार के संवाद के रूप में समाज की विकृत सोच का अनावृत्त चेहरा सामने रख दिया है।

दूसरी कहानी है बिवाईयां। इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में किसानों द्वारा आत्महत्या किए जाने की घटनाएं तेजी से बढ़ीं। कर्ज के बोझ तले दबा किसान जब जीने का कोई उपाय नहीं ढूंढ पाता है तो थक-हार कर मौत को गले लगा लेता है। कर्ज और भारतीय किसानों का साथ सदियों पुराना है। कोई हार जाता है तो कोई पीढि़यों तक कर्ज के बोझ को ढोता चला जाता है। किसान के जीवन में कर्ज बिवाईंयों की तरह होता है जो निरन्तर पीड़ा देता है किन्तु उससे बच पाना कठिन होता है। कर्ज के बोझ तले किसान की स्त्री के मन पर न जाने कितने मारक क्षण  गुज़रते हैं जब उसे अपने प्रिय गहने साहूकार के पास गिरवी रखने पड़ते हैं। उसे भी पता होता है कि अब ये गहने उसे कभी वापस नहीं मिल सकेंगे। उन्हें वापस पाने की कल्पना एक भ्रम मात्रा है। उर्मिला शिरीष ने किसान की पत्नी के पैरों की बिवाइयों और कर्ज से जीवन के ऊसर हो कर दरकने का बड़ा मार्मिक रूपक कथानक के रूप में प्रस्तुत किया है - ‘‘उसे लगा औरत की बिवाइयां चैड़ी से चैड़ी होती जा रही हैं, इतनी चैड़ी, इतनी लम्बी, इतनी गहरी कि वे बिवाइयां खेत में बदल गईं, दरारों से फटता खेत, रूखा-सूखा वीरान खेत, जिसे न पानी मिला था, न खाद, न बीज, न छाया, जिसका सौंदर्य-सौंधापन और हरीतिम खत्म हो गई थी, जिसमें परिंदों का आना ठहर गया था, जिसके बीच खड़ा हो कर न कोई हंसता था, न गाता था, न सपने देखता था।’’ (पृ.31)

जीवन की परेशानियां किस तरह व्यक्ति को ढोंगी बाबाओं के फेर में डाल देती हैं, इसका रोचक प्रस्तुतिकरण है कहानी अभिशाप। विशेषरूप से एक स्त्री जिसके भीतर मातृत्व धारण करने की अदम्य लालसा है और साथ ही अव्यक्त सामाजिक दबाव भी, वह हर उपाय आजमाने को तैयार है, भले ही ढोंग और आडम्बरधारी बाबा और तथाकथित सिद्धस्त्री माताजीही क्यों न हों। ऐसा भ्रमित मन यह भी मानने को तैयार हो जाता है कि ‘‘जहां मेडिकल साईंस और दवाएं काम नहीं करती हैं, वहां चमत्कार होते हैं। स्पर्श मात्रा से बीमारियां दूर हो जाती हैं।’’ (पृ. 46) इसी मानसिक दशा का अनुचित लाभ उठाते हैं छद्मवेशी बाबागण और माताएं।

स्थानान्तरण और भ्रष्टाचार के समीकरण के तार-तार को सामने रखने वाली कहानी है लूप लाईन। हर वह अधिकारी, कर्मचारी जो रिश्वतखोरी का लती होता है, सदा ऐसे अनुभाग में पदस्थापना चाहता है जहां उसकी रिश्वत लेने की प्रवृत्ति संतुष्ट होती रहे। मनचाहे अनुभाग की चाहत में वह सारे दांव-पेंच लड़ाता है और स्थितियों को अपने पक्ष में करके ही मानता है। वह बेलाग कहता है कि ‘‘सर! मैं आपको भी मालामाल कर दूंगा, क्या रखा है इस तरह के जीवन जीने में, आप तो जानते हैं बाढ़ पीडि़तों, भूकंप पीडि़तों के लिए कितना बजट आता है, उस बजट का कितना हिससा इस्तेमाल होता है और कितना बचाया जा सकता है-ज़मीन और प्लाट खरीद कर डाल लेना। बच्चों के काम आएंगे। बताइए, आपने बच्चों के लिए क्या किया, क्या जोड़ा, बताइए भाभी जी, इनकी आदर्श सोच को कौन पूछ रहा है। आप देख रही हैं मेरी हालत।’’

भ्रष्टाचार के पनपने और फैलने के नग्न सत्य को लूप-लाईनके माध्यम से बखूबी व्यक्त किया गया है।

असमाप्तसर्वथा अलग रंग की कहानी है। कथानायक हमीद लंगड़ा जो पेशे से दूकानदार है, जिसकी दूकान में हवा भरने, पंक्चर सुधारने व्यवस्था से ले कर,बीड़ी, सिगरेट, पान, तंबाकू, गुटखा, नमकीन, चना, साबुन जैसी वस्तुएं भी उपलब्ध रहती थीं। अतः उसकी दूकान पर ट्रकचालकों का मजमा लगा रहना स्वाभाविक था। फिर भी एक औसत  किस्म का आदमी था हमीद लंगड़ा। वह गालियां देता था, उसकी जुबान अश्लील और क्रूर थी। इन सबके होते हुए भी हमीद लंगड़ा यह मानता था कि ‘‘ औरत ही इस कायनत को चलाती है, मर्द तो केवल पीछे-पीछे चलता है।’’ (पृ. 73)

हमीद लंगड़ा के जीवन की कायनात को चलाने वाली औरत रिजवाना थी जिसकी अपनी कुछ आवश्यकताएं और आकांक्षाएं थीं। इन्हीं आकांक्षाओं ने रिजवाना को हमीद से विमुख करके उसके प्रति समर्पित कर दिया जो उसे  हर तरह से अपने योग्य लगा। ‘‘ये तो खुदा ही जानता है कि वह अंदर ही अंदर अंकुरित-पल्लवित होने वाली मोहब्बत की खुशबू थी या रिजवाना की अतृप्त वासानाओं का विस्फोट, जो उम्र के तकाजे के कारण एकाएक पहाड़ी की छाती फोड़ लावा की तरह धधक रहा था या हमीद लंगड़ा की घोर उपेक्षा और कमजोरी का प्रति-परिणाम। तिस पर घर का एकांतिक माहौल उन भावनाओं को हवा देने के लिए काफी था।’’ (पृ. 76)

परिणामतः हमीद और रिजवाना के जीवन की धुरी बन जाता है प्रिंस, और तीनों का जीवन चौंका देने वाले रास्ते पर चल पड़ता है। मानवीय संवेगों का अत्यंत बारीकी से और बहुत ही सुंदर चित्राण किया है लेखिका ने। निश्चित रूप से संग्रह की यह एक सशक्त कहानी है।

कुछ इस तरहएकाकी जीवन जीने वाले दो प्रौढ़ों की सुखांत कथा है। यदि समाज अपने-अपने जीवनसाथी खो चुके विधवा और विधुर हो चुके प्रौढ़ों को एक दूसरे के साथ जीवन जीने का भरपूर अवसर दें तो उनका जीवन भी सुखद हो सकता है, आल्हाद से भर सकता है। इस तथ्य को सबसे अधिक समझने की आवश्यकता है उन युवाओं को जो अपना जीवन अपने ढ़ंग से जीने और अपना भविष्य संवारने के लिए बुढ़ापे की ओर बढ़ चले अपने माता-पिता को अकेला छोड़ जाते हैं।

हरजानापब्लिक-शो के सहारे जीवन जीने वाले कलाकारों की संघर्ष एवं शोषण की कथा है। मानवीय मूल्यों और स्वार्थ के बीच चलने वाले दांव-पेंच पारस्परिक संबंधों को किस तरह उलझा देते हैं, यह चेहरेकहानी में  बखूबी पढ़ा और समझा जा सकता है।

निगाहेंठेकेदारों द्वारा श्रमिकों के शोषण की मार्मिक कथा है। दो समय की रोटी के लिए हाड़तोड़ मेहनत करते हैं उसी दो समय की रोटी पर कब्जा करके उन श्रमिकों को बंधुआ की स्थिति तक ला दिया जाता है।  बेरोजगारी के आलम में श्रमिकों की कोई कमी नहीं है। इस कटु सत्य को ठेकेदार हथियार की तरह प्रयोग में लाते हैं। जैसे इस कहानी में ठेकेदार कहता है-‘‘ ऐसे दयनीय बन जाते हैं कि अभी मर जाएंगे। अरे मजदूरों की क्या कमी है, गांव में फसल बरबाद हो गई। अभी कुछ खाने-करने को बचा नहीं। शहरों में दौड़- दौड़ कर आ रहे हैं। मजेरों की कमी थोड़ी न है। थोक के भाव मिल रहे हैं। ’’ (पृ. 122)

छोटे रुपहले परदों पर नाच-गाने की प्रतियोगिताओं और धारावाहिकों  ने इस तरह चकाचैंध फैला रखी है कि हर माता-पिता सेलीब्रिटीबनना चाहता है। जब वह स्वयं कुछ नहीं बन पाता है तो अपनी इच्छाओं की वेदी पर अपने मासूम बच्चों के बचपन की बलि देने को तत्पर हो उठता है। यदि बच्चे उनकी आशाओं को, उनकी चाहत को पूरा नहीं कर पाते हैं तो अपने मातृत्व की प्रकृतिदत्त कोमलता को भूल कर मां भी चिड़चिड़ा कर कहने लगती है कि - ‘‘इतना सिखाया था, इतना समझाया था। अरे, ध्यान से चार लाईनों गा लेती तो किस्मत बदल जाती, अब तू मर। यहीं पर सड़। कुछ नहीं कर सकती, तू जीवन में।’’ (पृ. 128)

संग्रह की शीर्षक कथा कुर्कीकर्ज और कर्ज लेने पर उत्पन्न होने वाली विपत्तियों का आख्यान है। ‘‘लगभग सभी गांव वाले कर्जदार थे। कुछ पुराने कर्जदार थे कुछ पीढि़यों के कर्जदार थे, कुछ नए कर्जदार थे, पर थे सभी कर्जदार। कोई साहूकार का कर्जदार था, तो कोई सहकारी समिति का, तो कोई बैंक का, तो कोई सर्राफे का।’’ (पृ. 134)

कर्ज लेने वालों को भी गोया कोई हिचक नहीं, एक विचित्रा, अबूझ आर्थिक व्यवस्था। वसूली और कुर्की का खतरा जाना-बूझा हुआ है, फिर भी कर्ज लेने में कोई कोताही नहीं। ‘‘भैया! कुल चालीस हजार बैंक से उठाया था। ब्याज सहित हो गया साठ हजार। जितना सोना था वो गिरवी रखा है बिजली का बिल बचा है अट्ठारह हजार।’’  (पृ. 135) सरकारी मुआवजे की बैसाखियां भी कम घातक नहीं होती हैं। वे कुछ कदम चलने में तो सहायता करती हैं किन्तु लंगड़ापन दूर नहीं कर सकती हैं। कर्ज के बोझ तले दबा इंसान इस आश्वासन के सहारे सुख के दो पल की बाट जोहता रहता है कि ‘‘सरकार मुआवजा देगी, चिन्ता क्यों करते हो।........सरकार कर्ज माफ करने के लिए कह रही है, सर्वे में जितनी राशि बनेगी दी जाएगी।’’

‘‘कब तलक?’’ (पृ. 138)

यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका उत्तर कभी मिलता है कभी नहीं। कर्ज ले कर खरीदे गए ट्रेक्टर, बोए गए बीज  और उगाई गई फसल को कुर्की से बचा पाना जीवन-मरण के प्रश्न के समान हर पल सामने खड़ा रहता है।

कुर्की और अन्य कहानियांउर्मिला शिरीष की उन कहानियों का पठनीय संग्रह है जिनमें स्त्री विमर्श, श्रमिक विमर्श, कृषक विमर्श अर्थात् समूचे समाज का एक विचारणीय विमर्श है, एक रोचकतापूर्ण वैचारिक कोलाज़ है।

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