सोमवार, अगस्त 06, 2012

बैठकी ........कहानी

    - डॉ. सुश्री शरद सिंह

              उसका नाम था सुखिया। ठीक उसी तरह जैसे अंधे का नाम नैनसुख। सुखिया के चेहरे पर खिंची हुई दुख की रेखाएं कोई भी देख सकता था। सुखिया पहले ऐसी नहीं थी। जन्म से ले कर बारह माह की उम्र तक उसने अपनी मां को कभी रो-रो कर परेशान नहीं किया। सुखिया की मां घर के काम निबटा कर बीड़ी बनाने बैठ जाती। मंा जब पास आती तो वह अपना बिना दांतों का नन्हा-सा मुंह खोल कर सुखिया हंस देती। मां क्षण भर को अपना दर्द भूल जाती। फिर दूसरे ही पल,  विषाद पूर्ण स्वर में बोल उठती-‘हंस ले कमरजली, हंस ले! मेरी कोख से जन्मी है, जनम भर तो रोना ही है।’
            हुआ भी यही। सुखिया अभी ठीक से बालिग भी नहीं हुई थी कि ब्याह दी गई। पूरी बालिग होते-होते तक एक बच्चे की मां भी बन गई। शादी के पांच साल गुज़रे और इन पांच सालों में सुखिया की गोद में एक के बाद एक पांच बच्चे आते गए। सेहत गिर गई, स्तनों में  दूध उतरना बंद हो गया। बड़ा परिवार और आमदनी अनिश्चित। अब, बच्चों की भूख मार-पीट से तो दबाई नहीं जा सकती। इसीलिए सुखिया ने अपनी पड़ोसन की मदद से बीड़ी बनाने का काम जुटा लिया। पांच बच्चों के बीच बैठ कर बीड़ी बनाना कोई हंसी-खेल तो था नहीं। एक को भूख लगती तो दूसरा टट्टी-पेशाब जाने के लिए निकर उतरवाने आ खड़ा होता। तीसरी संतान जो कि बेटी थी, वहीं बाजू में बैठ कर जुंए मारने लगती और चैथी तीसरी की पीठ पर    धौल जमा कर उसे झगड़े के लिए उकसाने लगती। पांचवी तो अभी गोद में ही थी। सुखिया गोद वाली बेटी को झूलने में डाल कर पास ही बैठ जाती मगर जब झूलने वाली बेटी झूलने में पड़ी-पड़ी पेशाब कर देती तो सुखिया को बीड़ी-पत्ते और तंबाकू का सूपा तत्काल हटाना पड़ता। वरना पत्ते या तंबाकू खराब हो सकते थे।
               इतनी सारी मुसीबतों से जूझती हुई सुखिया बीड़ी बना कर जब ठेकेदार के पास ले जाती तो वह उनमें दर्जनों खोट निकाल कर पैसे काट लेता। चालीस-पचास की जगह बीस-पचीस रुपयों तक नौबत आ जाती। झुंझलाई हुई सुखिया घर लौटती तो अपनी संतानों पर बरस पड़ती। आखिर उसकी खीझ और क्रोध कहीं तो निकलता ही। घर में चींख-पुकार भरा दारूण वातावरण निर्मित हो जाता। ऐसी परिस्थियों में सुखिया नाम भर की सुखिया रह गई थी। अब अगर उसका नाम सुखिया से बदल कर दुखिया कर दिया जाता तो किसी को आश्चर्य नहीं होता।
            यूं तो सुखिया अपनी जि़न्दगी से तंग आ गई थी लेकिन उसका हौसला अभी टूटा नहीं था। उसने सोचा कि ऐसे तो जि़न्दगी कटने से रही, कुछ और करना ही होगा। अपनी उसी पड़ोसन से सलाह-मशविरा करने के बाद सुखिया को यह विचार पसन्द आया कि साप्ताहिक हाट में जा कर सब्जी बेेची जाए। सुखिया ने अपने पति से कहा कि वह सवेरे सायकिल से सब्जी-मंडी जा कर सब्जी ले आया करे लेकिन पति को इस काम में अपनी इज़्जत कम होती प्रतीत हुई। एक ठेकेदार के कार्यस्थल पर चैकीदारी का काम करने वाले पति को यह मंज़ूर नहीं हुआ अतः सुखिया ने स्वयं सब्जी-मंडी जाने का निर्णय लिया। 

                                                 साप्ताहिक-हाट की सुबह सुखिया मंडी जा पहुंची। सब्जियों से भरे हुए बोरे और उन्हें खरीदने के लिए चल रही मारा-मारी को देख कर सुखिया घबरा गई। फिर साहस करके वह भी कूद पड़ी भाव-ताव के मैदान में। पन्द्रह मिनट में उसने वे सब्जियां खरीद लीं जिन्हें वह हाट में बेच सकती थी। अब समस्या थी सब्जियों को घर ले जाने की। हाट तो दोपहर से लगनी शुरू होती थी। चिन्ता में डूबी सुखिया सोच ही रही थी कि उसे किसी ने टोका।
              ‘अरे भौजी, तुम यहां कैसे?’ राजू था, उसी के मुहल्ले का लड़का।
              ‘हाट के लिए सब्जी लेने आई थी।’ सुखिया ने बताया।
              ‘ले ली?’ राजू ने पूछा।
              ‘हां, ले तो ली...मगर अब घर कैसे ले जाऊं कैसे? अॅाटो रिक्शा वाले बहुत मंाग रहे हैं और टेम्पो -स्टेंड दूर है।’ सुखिया चिन्तित स्वर में बोली।
             ‘बस, इतनी-सी बात? चलो, मैं ले चलता हूं तुम्हारी सब्जियंा। मोपेड है मेरे पास। चलो तुम भी पीछे बैठ जाओ।’ राजू मुस्कुरा कर बोला।
             ‘नहीं-नहीं, तुम सब्जियां भर ले जाओ, मैं टेम्पो से आ जाऊंगी।’ सुखिया सकुचा कर बोली।
           ‘टेम्पो में पैसे खर्च करोगी? इत्ते पैसे हो गए?’ राजू ने झिड़की भरे स्वर में कहा।
            इस पर सुखिया मना न कर सकी। वह डरती-सहमती राजू की मोपेड की पिछली सीट पर बैठ गई। वह जीवन में पहली बार किसी मोपेड पर सवार हुई थी। अच्छा लगा उसे।उसने सोचा कि सब्जियां बेच-बेच कर जब चार पैसे हो जाएंगे उसके पास तो वह भी अपने पति के लिए मोपेड खरीदेगी।
            ‘भौजी, चाय भी नहीं मिलाओगी क्या?’ घर पहुंचते ही राजू सुखिया से बोला। उंगली पकड़ने वाले को पहुंचा पकड़ते देर नहीं लगती। सुखिया को कुछ-कुछ समझ में तो आया लेकिन उसकी मजबूरी ने उसकी समझ पर पर्दा डाल दिया।
            ‘दोपहर को मिलते हैं।’ कह कर राजू चला गया। राजू का यूं हंस कर कहना सुखिया को अच्छा तो नहीं लगा लेकिन यह सोच कर तसल्ली भी हुई कि वह पहली बार हाट में सब्जी ले कर बैठने जा रही है, वहंा कोई जान-परिचय वाला तो होगा जो वहंा उसकी मदद करेगा।
            दोपहर हुई। सुखिया सिर पर टोकरी जमाने का प्रयास कर रही थी कि राजू आ धमका।
           ‘भौजी, मैंने सोचा कि तुम मंडी से तो सब्जी ला नहीं पा रही थीं फिर हाट तक कैसे ले जाओगी? सो, मैं चला आया। ये सब्जियंा डालो बोरे में और खाली टोकरी हाथ में पकड़ कर आओ बैठो पीछे।’ राजू ने एक अनुभवी की तरह सलाह दी।
            सलाह मानने के अलावा और चारा ही क्या था। सुखिया राजू की मोपेड में बैठ कर हाट जा पहुंची।
            राजू ने अपनी दुकान सजाते हुए कहा- ‘मेरे साथ ही बैठ जाओ, भौजी! नहीं तो अलग से बैठकी देनी पड़ेगी।’
            ‘बैठकी?’ सुखिया के लिए यह शब्द नया था।
         ‘हंा, हाट में सामान बेचने के लिए बैठने की एवज में देनी पड़ती है। ....आठ, दस, पन्द्रह... ये तो वसूली वाले तय करते हैं। खैर, तुम छोड़ो ये झंझट, तुम तो मेरे साथ बैठो। मैं कह दूंगा कि तुम मेरे घर की हो.... घरवाली! ’ राजू बेशर्मी से हंस दिया।
             ‘क्या?’ सुखिया चैंकी।
            सुखिया को घबराया हुआ देख राजू ने हंस कर कहा- ‘मैं तो मज़ाक कर रहा था। बाकी, मेरे घर की हो, ये तो कहना ही पड़ेगा।’
              

मन मसोस कर रह गई सुखिया। ज़रूरत भी क्या-क्या दिन दिखा देती है। थोड़ी देर में बैठकी वसूलने वाले आए। राजू ने उसे अपने घर की बता कर उसकी बैठकी के पैसे बचवा दिए। इसके बाद तीन-चार घंटे हाट की गहमागहमी में डूबे रहे दोनों।
             शाम ढले सुखिया को हाट से वापस घर पहुंचाते समय सुखिया ने दस रुपए का नोट राजू को थमाते हुए कहा-‘ये रख लो, बैठकी के।’
             ‘गज़ब करती हो भौजी, तुमसे रुपए लूंगा बैठकी के? अगर कुछ देना ही है तो एक कप चाय दे दो।’ कहते हुए राजू ने दस का नोट वापस सुखिया की मुट्ठी में दबा दिया। इस प्रक्रिया में उसने अपने दोनों हाथों से सुखिया की मुट्ठी पकड़ी और अपने सीने से लगा लिया। सुखिया कंाप कर रह गई। संकेत स्पष्ट था। अनपढ़ ही सही लेकिन सुखिया थी तो औरत ही। राजू के जाने के बाद भी सुखिया के शरीर से कंपकपी गई नहीं। वह हताशा से भर कर ज़मीन पर बैठ गई।
           वह सोचने लगी। बैठकी तो देनी ही होगी उसे, अब हाट-वसूली वालों की बैठकी दे या राजू की ‘बैठकी’ ? राजू को ‘बैठकी’ नहीं देगी तो वह उसकी मदद नहीं करेगा लेकिन राजू की ‘बैठकी’ की वसूली का कोई अंत होगा क्या? वसूली वालों की बैठकी तो दस-पन्द्रह रुपयों पर जा कर ठहर ही जाएगी मगर राजू?
                                                 


सुखिया सोच-विचार कर ही रही थी कि उसकी दूसरी बेटी आ कर उसके कंधों से चिपट गई। बेटी के इस दुलार ने सुखिया को निर्णय पर पहुंचा ही दिया। उसने तय कर लिया कि अगले हाट में वह वसूली वालों को ही बैठकी देगी। भले ही उसे मंडी से सिर पर सब्जी ढोनी पड़े, भले ही उसे हाट तक सब्जी ढोनी पड़े, भले ही उसे हाट में बैठने को अच्छी जगह न मिले। बस, एक पल का निर्णय पूरी जि़न्दगी को स्वर्ग या नर्क बना सकता है और वह निर्णय सुखिया ने ले लिया था। निर्णय लेते ही सुखिया का दिल हल्का हो गया और वह अपनी बेटी को गोद में बिठा कर दुलारने लगी।
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