सोमवार, जुलाई 30, 2012

ठाकुर का कुंआ....प्रेमचंद

लेखकः प्रेमचंद
ठाकुर का कुंआ (कहानी)
लेखकः प्रेमचंद
प्रस्तुतिः डॉ. शरद सिंह

(लेखक परिचयः कथा सम्राट प्रेमचंद का जन्म काशी से चार मील दूर बनारास के पास लमही नामक गांव में 31 जुलाई 1880 को हुआ था। उनका असली नाम श्री धनपतराय। प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह माने जाते हैं। प्रेमचन्द की रचना-दृष्टि, विभिन्न साहित्य रूपों में, अभिव्यक्त हुई। वह बहुमुखी प्रतिभा संपन्न साहित्यकार थे। उन्होंने उपन्यास, कहानी, नाटक, समीक्षा, लेख, सम्पादकीय, संस्मरण आदि अनेक विधाओं में साहित्य की सृष्टि की किन्तु प्रमुख रूप से वह कथाकार हैं। उन्हें अपने जीवन काल में हीकथा सम्राटकी उपाधि मिल गयी थी।
उनकी कृतियां हैः- उपन्यास- वरदान, प्रतिज्ञा, सेवा-सदन, प्रेमाश्रम, निर्मला, रंगभूमि, कायाकल्प, गबन, कर्मभूमि, गोदान, मनोरमा, मंगलसूत्र(अपूर्ण)।
कहानी संग्रह - प्रेमचंद ने कई कहानियां लिखी है। उनके २१ कहानी संग्रह प्रकाशित हुए थे जिनमे 300 के लगभग कहानियां है। प्रेमचंद की कहानियों का संग्रह 'मानसरोवर' नाम से आठ भागों में प्रकाशित है। नाटक- संग्राम, कर्बला तथा प्रेम की वेदी।
जीवनियां- महात्मा शेख सादी, दुर्गादास, कलम तलवार और त्याग, जीवन-सार(आत्म कथात्मक)
बाल रचनाएं- राम चर्चा ,मनमोदक , जंगल की कहानियां, आदि।
8 अक्टूबर 1936 को प्रेमचंद का निधन हुआ।)


जोखू ने लोटा मुंह से लगाया तो पानी में सख्त बदबू आई । गंगी से बोला-‘यह कैसा पानी है ? मारे बास के पिया नहीं जाता । गला सूखा जा रहा है और तू सडा़ पानी पिलाए देती है!’
       गंगी प्रतिदिन शाम पानी भर लिया करती थी । कुआं दूर था, बार-बार जाना मुश्किल था । कल वह पानी लायी, तो उसमें बू बिलकुल न थी, आज पानी में बदबू कैसी ! लोटा नाक से लगाया, तो सचमुच बदबू थी । जरुर  कोई जानवर कुएं में गिरकर मर गया होगा, मगर दूसरा पानी आवे कहां से?
ठाकुर के कुंए पर
कौन चढ़ने देगा ? दूर से लोग डांट बताऍगे । साहू का कुआ गांव के उस सिरे पर है, परन्तु वहां कौन पानी भरने देगा ? कोई कुंआ गांव में नहीं है।
      जोखू कई दिन से बीमार हैं । कुछ देर तक तो प्यास रोके चुप पड़ा रहा, फिर बोला-‘अब तो मारे प्यास के रहा नहीं जाता । ला, थोड़ा पानी नाक बंद करके पी लूं ।

     गंगी ने पानी न
दिया । खराब पानी से बीमारी बढ़ जाएगी इतना जानती थी, परंतु यह न जानती थी कि पानी को उबाल देने से उसकी खराबी जाती रहती हैं । बोली-‘यह पानी कैसे पियोगे ? न जाने कौन जानवर मरा हैं। कुंए से मैं दूसरा पानी लाए देती हूं।’
        जोखू ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा-‘पानी कहां से लाएगी ?’
       ‘ठाकुर और साहू के दो कुंए तो हैं। क्यों एक लोटा पानी न भरने देंगे?’
       ‘हाथ-पांव तुड़वा आएगी और कुछ न होगा । बैठ चुपके से । ब्राहम्ण देवता आशीर्वाद देंगे, ठाकुर लाठी मारेगें, साहूजी एक पांच लेगें । गराबी का दर्द कौन समझता हैं ! हम तो मर भी जाते है, तो कोई दुआर पर झांकने नहीं आता, कंधा देना तो बड़ी बात है। ऐसे लोग कुएं से पानी भरने देंगे ?’ इन शब्दों में कड़वा सत्य था । गंगी क्या जवाब देती, किन्तु उसने वह बदबूदार पानी पीने को न दिया ।

         रात के नौ बजे थे । थके-मांदे मजदूर तो सो चुके थे, ठाकुर के दरवाजे पर दस-पांच बेफिक्रे जमा थे मैदान में । बहादुरी का तो न जमाना रहा है, न मौका। कानूनी बहादुरी की बातें हो रही थीं । कितनी होशियारी से ठाकुर ने थानेदार को एक खास मुकदमे की नकल ले आए । नाजिर और मोहतिमिम, सभी कहते थे, नकल नहीं मिल सकती । कोई पचास मांगता, कोई सौ। यहां बे-पैसे-कौड़ी नकल उड़ा दी । काम करने ढंग चाहिए ।
         इसी समय गंगी कुंए से पानी लेने पहुंची  कुप्पी की धुंधली रोशनी कुए पर आ रही थी । गंगी जगत की आड़ मे बैठी मौके का इंतजार करने लगी । इस कुंए का पानी सारा गांव पीता हैं । किसी के लिए रोका नहीं, सिर्फ ये बदनसीब नहीं भर सकते । गंगी का विद्रोही दिल रिवाजी पाबंदियों और मजबूरियों पर चोटें करने लगा-हम क्यों नीच हैं और ये लोग क्यों ऊंचे हैं ? इसलिए कि ये लोग गले में तागा डाल लेते हैं ? यहां तो जितने है, एक-से-एक छंटे हैं । चोरी ये करें, जाल-फरेब ये करें, झूठे मुकदमे ये करें । अभी इस ठाकुर ने तो उस दिन बेचारे गड़रिए की भेड़ चुरा ली थी और बाद मे मारकर खा गया । इन्हीं पंडित के घर में तो बारहों मास जुआ होता है। यही साहू जी तो घी में तेल मिलाकर बेचते है । काम करा लेते हैं, मजूरी देते नानी मरती है । किस-किस बात मे हमसे ऊंचे हैं, हम गली-गली चिल्लाते नहीं कि हम ऊंचे है, हम ऊंचे । कभी गांव में आ जाती हूँ, तो रस-भरी आंख से देखने लगते हैं। जैसे सबकी छाती पर सांप लोटने लगता है, परंतु घमंड यह कि हम ऊंचे हैं!
         कुंए पर किसी के आने की आहट हुई । गंगी की छाती धक-धक करने लगी । कहीं देख ले तो गजब हो जाए । एक लात भी तो नीचे न पड़े । उसाने घड़ा और रस्सी उठा ली और झुककर चलती हुई एक वृक्ष के अंधेरे साए मे जा खड़ी हुई । कब इन लोगों को दया आती है किसी पर ! बेचारे महगू को इतना मारा कि महीनों लहू थूकता रहा। इसीलिए तो कि उसने बेगार न दी थी । इस पर ये लोग ऊंचे बनते हैं ?

कुंए पर स्त्रियां पानी भरने आयी थी। इनमें बात हो रही थीं ।
      ‘खान खाने चले और हुक्म हुआ कि ताजा पानी भर लाओ । घड़े के लिए पैसे नहीं है।
      ‘हम लोगों को आराम से बैठे देखकर जैसे मरदों को जलन होती हैं ।
      ‘हां, यह तो न हुआ कि कलसिया उठाकर भर लाते। बस, हुकुम चला दिया कि ताजा पानी लाओ, जैसे हम लौंडियां ही तो हैं।
       ‘लौंडियां नहीं तो और क्या हो तुम? रोटी-कपड़ा नहीं पातीं ? दस-पांच रुपये भी छीन-झपटकर ले ही लेती हो। और लौंडियां कैसी होती हैं!
        ‘मत लजाओ, दीदी! छिन-भर आराम करने को जी तरसकर रह जाता है। इतना काम किसी दूसरे के घर कर देती, तो इससे कहीं आराम से रहती। ऊपर से वह एहसान मानता ! यहां काम करते-करते मर जाओ, पर किसी का मुंह ही सीधा नहीं होता
        दोनों पानी भरकर चली गई, तो गंगी वृक्ष की छाया से निकली और कुंए की जगत के पास आयी । बेफिक्रे चले गऐ थे । ठाकुर भी दरवाजा बंदर कर अंदर आंगन में सोने जा रहे थें । गंगी ने क्षणिक सुख की सांस ली। किसी तरह मैदान तो साफ हुआ। अमृत चुरा लाने के लिए जो राजकुमार किसी जमाने में गया था, वह भी शायद इतनी सावधानी के साथ और समझ-बूझकर न गया हो । गंगी दबे पांव कुंए की जगत पर चढ़ी, विजय का ऐसा अनुभव उसे पहले कभी न हुआ ।
        उसने रस्सी का फंदा घड़े में डाला । दाएं-बाएं चौकन्नी दृष्टी से देखा जैसे कोई सिपाही रात को शत्रु के किले में सूराख कर रहा हो । अगर इस समय वह पकड़ ली गई, तो फिर उसके लिए माफी या रियायत की रत्ती-भर उम्मीद नहीं । अंत मे देवताओं को याद करके उसने कलेजा मजबूत किया और घड़ा कुंए में डाल दिया ।
         घड़े ने पानी में गोता लगाया, बहुत ही आहिस्ता । जरा-सी आवाज न हुई गंगी ने दो-चार हाथ जल्दी-जल्दी मारे । घड़ा कुंए के मुंह तक आ पहुंचा । कोई बड़ा शहजोर पहलवान भी इतनी तेजी से न खींच सकता था।
      गंगी झुकी कि घड़े को पकड़कर जगत पर रखें कि एकाएक ठाकुर साहब का दरवाजा खुल गया । शेर का मुंह इससे अधिक भयानक न होगा।
            गंगी के हाथ रस्सी छूट गई । रस्सी के साथ घड़ा धड़ाम से पानी में गिरा और कई क्षण तक पानी में हिलकोरे की आवाजें सुनाई देती रहीं ।
           ठाकुर ‘कौन है, कौन है ?’ पुकारते हुए कुंए की तरफ जा रहे थें और गंगी जगत से कूदकर भागी जा रही थी ।
      

 

घर पहुंचकर देखा कि लोटा मुंह से लगाए जोखू वही मैला गंदा पानी पी रहा है।

शुक्रवार, जुलाई 27, 2012

डॉ. अम्बेडकर का स्त्री विमर्श...


अपनी नई पुस्तक के लिए आप सभी का स्नेह चाहती हूं. कृपया इसे अपना स्नेह प्रदान करें...... 
 
पुस्तक का नाम - डॉ. अम्बेडकर का स्त्री विमर्श
लेखिका- डॉ.(सुश्री) शरद सिंह 
सहलेखक- गुलाब चंद

प्रकाशक – भारत बुक सेन्टर, 17, अशोक मार्ग, लखनऊ (उत्तर प्रदेश)- 226001

Woman discourse of Dr Ambedkar 
written by Dr (Ms) Sharad Singh, 
Co-writer Mr Gulab Chand

Published by Bharat Book Centre, 17, Ashok Marg, Lucknow  (UP) -226001

इस पुस्तक का विवरण एवं भूमिका अवलोकनार्थ प्रस्तुत कर रही हूं....... 

Dr Ambedkar Ka Stri Vimarsh- Cover





पुस्तक के फ्लैप्स




पुस्तक की भूमिका