मंगलवार, दिसंबर 14, 2010

इस बार......लायक राम ‘मानव’ की कहानी ‘पगलिया’



              
    लाली नाम था उसका। यही नाम गुदा हुआ था उसकी कलाई पर, जो जमें हुए मैल के साथ मिलकर उसी में गुम हो गया था। उसका कोई चूल्हा-चौका नहीं था, कोई बिस्तर नहीं था। कोई तथाकथित धर्म नहीं था, कोई जाति नहीं थी। कोई अपनी पसंद नहीं थी। कोई हमदर्द नहीं था। वह सबके लिए बस पगलिया थी, सिर्फ पगलिया। उसकी पूरी दुनिया उसके अंदर थी।
  कितनी तेजी से बदल जाता है सब कुछ। लखनऊ जंक्शन के ठीक सामने टैम्पो स्टैण्ड नम्बर नौ, जहाँ से मैं कभी टैम्पो चलाया करता था। ये अट्ठाइस साल पहले की बात है। इन अट्ठाइस सालों में कुछ भी पहले जैसा नहीं रहा। न तो अब मैं ड्राइवर हूँ, न यहाँ अब टैम्पो स्टैण्ड है। पर अभी तक सब कुछ याद है। स्टैण्ड के ठीक नुक्कड़ पर गुलमोहर का कुबड़ा सा पेड़ था। उस पर सिर्फ डेढ़ शाखाएँ थीं, जो गर्मियों में सुर्ख फूलों से लद जाती थी। गुलमोहर के नीचे सीताराम की पान की दुकान थी। कोई गुमटी नहीं, कोई ठेला नहीं, कोई कुर्सी-मेज नहीं, सीताराम जमीन पर ही दुकान लगाता था। पान, तम्बाकू, बीड़ी, सिगरेट के साथ भाँग की गोलियाँ भी रखता था वह। वैसे आस-पास गुमटियों से सजी-धजी पान की दुकानें भी थीं, लेकिन स्टैण्ड के सारे ड्राइवर सीताराम के पास ही पान खाते थेे। कौन ड्राइवर कैसा पान खाता है, कौन सी बीड़ी या सिगरेट पीता है, यह सब सीताराम के दिमाग में छपा हुआ था। 
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